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बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

झाँकी हिंदुस्तान की : जागो मोहन प्यारे

भारत दर्शन : जागो मोहन प्यारे 

|| झाँकी हिंदुस्तान की :- इस श्रंखला की तीसरी पाती ||

इससे पूर्ववर्ती पाती के लियें देखें :झांकी हिंदुस्तान की : बढे चलो, बढे चलो

( ब्लॉग के आलेखों को पढने की सुविधा हेतु उनको विषयवार टेब्स ( Tabs) में व्यवस्थित किया गया है , प्रकाशित  सभी चिट्ठों को आप  'मुखपृष्ठ : शुभ स्वागतम' के अतिरिक्त उनके  टेब्स ( Tabs) पर भी क्लिक करके विषयवार पढ़ सकते हैं । उदाहरण : यथा आप इस लेख और इस विषय ( यात्रा ) पर आधारित लेखों को " पथ की पहचान" टेब्स ( Tabs)  में भी  पढ़ सकते हैं , धन्यवाद ) 


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चित्र 1 
चित्र 2 
[ इससे पहले की हम अपनी यात्रा को आगे बढायें, मैं आपको अपने ब्लॉग के संबंध में कुछ बताना चाहता हूँ । आलेखों को पढने के दौरान अगर आप किसी शब्द या विषय के बारे में और अधिक जानकारी पाना चाहते हैं तो मैंने अपने ब्लॉग पर विकिपीडिया का विकल्प दिया हुआ है । यह आप मेरे ब्लॉग पर बांयी ओर पा सकते हैं  (चित्र क्र.  1 में लाल घेरे में दर्शाये अनुसार ) । ब्लॉगर के अतिरिक्त आप मुझसे फेसबुक पर भी संपर्क कर सकते हैं , इसके लिए आपको मात्र यह करना है कि मेरे ब्लॉग पर ऊपर दांयी ओर दिये गये फेसबुक बैज को क्लिक करना है (चित्र क्र.  1 में हरे घेरे में दर्शाये अनुसार ) । इसके अतिरिक्त अगर आप किसी सामग्री का अनुवाद किसी भाषा में करना चाहते हैं तो गूगल अनुवादक विडगेट भी ब्लॉग पर दांयी ओर नीचे दिया गया है  (चित्र क्र.  2  में पीले  घेरे में दर्शाये अनुसार )  । अगर आप को दिये गये चित्र देखने में असुविधा हो तो आप चित्रों पर क्लिक करके इन्हें बड़े आकार में देख सकते हैं । यह तो वह कुछ काम हुये जो मैंने अपनी ओर से आपके ब्लॉग अनुभव को उपयोगी व आनन्ददायक बनाने के लिये किये हैं । मेरे ब्लॉग के प्रस्तुतिकरण, सामग्री के विषय, लेखन के विषय में मुझे आपके अमूल्य सुझावों की नितांत आवश्यकता है । आशा है आप मुझे कृतार्थ करेंगे । 
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गतांक से आगे :- 

यह भारत दर्शन रेल यात्रा पर हमारी पहली रात थी , रात गुजरती जा रही थी , रेलगाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ती जा रही थी और हम नींद के आगोश में समाये हुये थे । ठण्ड के दिनों में सूर्योदय कुछ देर से होता है और दिन भर के सफर की बोरियत थी तो नींद तो बड़ी मीठी लगी हुई थी । अचानक कानों में संगीत लहरी गूंजी बहुत ही मधुर आवाज़ लता मंगेशकर की । पहले तो हमें लगा कि शायद सपना देख रहे हैं फिर कुछ चैतन्य से हुये तो ज्ञात हुआ कि यह गीत की ध्वनि स्पीकर से आ रही है , गीत था  "जागो मोहन प्यारे" हमने तो अपनी यात्रा की लगभग प्रत्येक भोर यह सुना , जरा आप भी सुन कर देखिये :




     यह सुबह सुबह का समय था, दिनांक थी 19 नवम्बर 2009 ,  और हम राजकोट पहुँचने वाले थे, द्वारका पहुंचने में अभी बहुत समय बाकी था । जागकर हमने अपने बिछौने को समेटा और चूँकि गाड़ी तो बदलनी नहीं थी  और खुशकिस्मती से हमारे पास स्थान की कोई कमी भी नहीं थी तो समेट कर हमने उसे ऊपर वाली बर्थ पर रख दिया । हमारे कोच में भी हलचल शुरू हो गई थी । जैसा कि पहले बता चूका हूँ कि अधिकतर यात्री वरिष्ठ नागरिक थे , महिलायें भी काफी संख्या में थीं तो हमने शिष्टाचार का पालन करते हुये , प्रसाधन सुविधाओं का उपयोग करने में जरा भी हडबडी नहीं की और एक डेढ़ घंटे में जब अधिकांश लोग निवृत्त हो चुके तो हमने इत्मीनान से मुंह धोया, ताज़ा दम हुये , और चल दिये पेंट्री की तरफ क्योंकि हुआ ये था कि जब सबको चाय पिलाई जा रही थी उस समय हमने बिना मुंह धोये होने के कारण वो पी नहीं थी , और तरोताजा होने के बाद चाय की तलब बड़ी जोरों से लग रही थी , तो हमने पेंट्री में जाकर चाय पीने की इच्छा जताई जो तत्काल पूरी की गई । लेकिन हमें लगा कि हमने पहले से ही व्यस्त इन लोगों का काम कुछ और बढ़ा दिया और इसका उपाय भी हमने तत्काल खोज लिया हमने निश्चय किया कि अब से हम ही कुछ पहले उठ जाया करेंगे जिससे हमें भी असुविधा न हो और दूसरों को भी न हो । 

     प्रात: लगभग साढ़े सात बजे हम राजकोट स्टेशन पहुंचे , हमें बताया गया था कि हम प्लेटफार्म पर उतर सकते हैं पर रहें गाड़ी के आसपास ही , जब भी ऐंसा होता था कि गाड़ी किसी स्टेशन पर रुक जाये तो कोच के सुरक्षा कर्मी दरवाजों पर आ जाते थे , जिससे कोई अन्य यात्री भूलवश इस विशेष गाड़ी में न चढ़ जाये । राजकोट के प्लेटफार्म क्र. 1 पर हमारी गाड़ी लगी हुई थी और हम गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे थे । अब समय आ गया है कि हम आपको अपने कुछ सहयात्रियों से परिचित करवाते चलें क्योंकि हम एक या दो दिन के लिये साथ में नहीं थे , बल्कि लगभग दो सप्ताह का हमारा साथ रहने वाला था । सबसे निकटस्थ से प्रारम्भ करते हुये समय-समय पर आपको सबसे परिचित करवाते जायेंगे । आपको याद होगा कि हमारे कूपे की 8 बर्थों पर हम चार ही यात्री थे । दो तो मैं और अंकित   और दो एक बुजुर्ग दम्पत्ति , सबसे पहले आपका परिचय इन्ही से करवाते हैं : 

अंकित, तिवारी दम्पत्ति के साथ 

     इस चित्र में जो बुजुर्ग सज्जन दिखाई दे रहे हैं ये हैं  श्री पी.डी.तिवारी जी , जो विदिशा (म.प्र.) से थे , यही थे वो जिनको हमने अपनी निचली बर्थ दे दी थीं।   इनकी गोद में जो प्यारा सा बच्चा है वो हमारे बाजू वाले कूपे के सोनी दम्पत्ति का चिरंजीव है जो गुना (म.प्र.) के थे । यूँ तो तिवारी जी की आयु लगभग 75 वर्ष थी , नगरपालिका से सेवानिवृत थे लेकिन हंसमुख और बहुत खुले दिल के सज्जन थे , हमारी आयु में इतना अंतर होने के बाद भी वो पहले ही दिन से हमारे मित्र और घर के सम्माननीय सदस्य जैसे हो गये थे । वो हमें डॉक्टर साहब कह कर संबोधित करते थे और हम उन्हें दादाजी । वो मुंशी प्रेमचन्द की मशहूर कहानी 'बूढी काकी' का एक वाक्य है ना  कि : 
बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है 
     बिलकुल वैसे ही थे तिवारी दादा , बालसुलभ स्वभाव , अमूमन वृद्धों का युवाओं के कार्य-कलापों के प्रति जो बेरुखी और विरोध का रवैया होता है उसका उनमें नितांत अभाव था , अब हमें नाश्ता दिया गया जो शायद उपमा था , एक दिन-रात के संग के बाद हम सभी एक दूसरे से घुलने की कोशिश कर रहे थे । समय गुजरता जा रहा था और बहुत से लोगों को नहाने की इच्छा जोर मारने लगी थी , कुछ ने तो बाकायदा कहना शुरू भी कर दिया कि किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकवा के सबके नहाने का बन्दोबस्त कर देना चाहिये और बेचारे यात्रा प्रबन्धक समझाते समझाते परेशान थे कि आपके नहाने और भोजन का इन्तेजाम द्वारका में ही किया गया है । जब अच्छी तरह से वो परेशान हो चुके तो उन्होंने लिया सबको एक साथ सम्बोधित करने का निर्णय फिर सबको बताया गया कि जब आप द्वारका पहुंचेंगे तो आपको स्टेशन के बाहर बस लगी हुई मिलेंगी ( यात्रा के शुल्क में ही शामिल ) जो कि संख्या में १० होंगी तो फलां-फलां कोच के इस से लेकर इस क्र. तक की बर्थ के यात्रियों को इस क्र. की बस में सवार होना है , शेष यात्रा में लगभग यही क्रम बरकरार रहा , जब कभी सीटों की संख्या के कारण बस घट या बढ़ जाती थीं तो संशोधित क्रम हमें बता दिया जाता था । 

     रास्ते में लाल माटी वाले कपास के खेतों को देखा, उस समय कपास की चुनाई का मौसम था , कुछ कुछ खेतों में यह काम भी लगा हुआ था , अब जो पानी हम पी रहे थे वह खारा था , जिसका स्वाद बिलकुल भी पसंद नहीं आ रहा था , लेकिन क्या किया जाये मजबूरी में सब करना पड़ता है । पूरा गुजरात एक सिरे से दूसरे सिरे तक पार करके हम दोपहर में लगभग साढ़े बारह बजे द्वारका पहुंचे , हमने जो रास्ता तय किया उसे आप नीचे दिये गये इस मानचित्र से समझ सकते हैं , इस मानचित्र में लाल घेरे में  नीले रंग से जो पथ रेखांकित किया गया है उसे हमने तय किया : 

भोपाल से द्वारका

  और इस सफर के कुछ मुख्य स्टेशन इस प्रकार हैं , भोपाल-उज्जैन-रतलाम-वड़ोदरा-आणंद-अहमदाबाद-राजकोट-जूनागढ़-वेरावल-द्वारका , उस समय द्वारका का रेलवे स्टेशन निर्माणाधीन था , प्लेटफार्म कहने को तो 2 थे लेकिन वस्तुत: एक ही प्लेटफार्म किसी हद तक पूरा हुआ था , दूसरा तो अभी ठीक से बना भी नहीं था । दोनों को आप नीचे दिये चित्र में देख सकते हैं :

तत्कालीन द्वारका रेलवे स्टेशन


     इस चित्र में जो रेलगाड़ी दिखाई दे रही है , वह हमारी ही रेलगाड़ी है जो कि प्लेटफार्म क्र.02 पर लगी थी और हम ओवरहेड पुल से प्लेटफार्म क्र.01 से होते हुये स्टेशन के बाहर हुये थे । हमें यह पहले ही बता दिया गया था कि पूरा सामान साथ ले जाने की आवश्यकता नहीं है । हम जो कपड़े पहने हुये हैं उनके अलावा एक जोड़ी कपड़े और तौलिया, साबुन , शैम्पू जैसी चीजें और मोबाईल फोन वगैरह बस साथ ले जायें , जो नियमित रूप से कोई दवा लेते हैं वो अपनी दवा साथ ले चलें । तो हमने भी एक जोड़ी कपड़े और साबुन वगैरह एक झोले में डाले और निकल आये गाड़ी से बाहर, यात्रियों को उतार कर हमारी गाड़ी यार्ड में खड़ी रहती थी , जहाँ उसकी सफाई आदि होती थी । प्लेटफार्म से बाहर निकले तो तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक बाहर बस लगी हुईं थी जो हमें हमारे अगले पड़ाव तक ले जाने वाली थीं ।

     जब लिखना शुरू किया था तब इरादा तो यह था कि इसी पाती में द्वारका भ्रमण कर लिया जाये लेकिन अब लग रहा है कि ऐंसा किया तो यह पाती बहुत लम्बी और बोझिल हो जायेगी । अब आपको रेल के यात्रा कार्यक्रम की रूपरेखा मालूम हो ही गई है तो इसको दोहराने से बचूँगा और एक दिन की यादें , एक ही पाती में समेटने की कोशिश करूंगा । चलते चलते आप को एक बात बता दें कि यात्रा श्रंखला की हमारी अगली पाती का शीर्षक होगा "कैसे हो द्वारकाधीश" इस शीर्षक से जुडा  हुआ एक बड़ा ही सुंदर , रोचक प्रसंग भी होगा । बने रहिये अमित के साथ । एक बार आपको फिर याद दिला दें कि  मुझे आपके अमूल्य सुझावों की नितांत आवश्यकता है । आशा है आप मुझे कृतार्थ करेंगे । 

     
    तब तक के लिये अनुमति दीजिये , कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें ............

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

आकुल वसंत

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प्रिय आत्मन : सादर जयहिंद 
वसंत आगमन की सुरभित शुभकामनायें मेरी इस कविता के माध्यम से स्वीकार कर अनुग्रहीत करें ::




// आकुल वसंत //


पतझड़ के पतन पर, 
अवसाद के अवसान पर,
पीत-पुष्पित सरसों पर, 
नवांकुरित पत्र-वृन्द पर, 
भोर की ओस-मुक्ता पर, 
आकुल वसंत, व्याकुल वसंत |


प्रथम दृष्टिपात पर,
नयन निमन्त्रण घात पर,
केश-पाश के सुमन पर,
बाँकी कजरारी चितवन पर,
सरस रक्तिम अधरों पर,
आकुल वसंत, व्याकुल वसंत |

प्रशस्त ललाट के बिंदु पर,
अप्रतिम सौंदर्य-सिन्धु पर,
भैरवी में खनकती कलाई पर,
कपोलों पर झूलती लट पर,
सुध खो सरकते पट पर,
आकुल वसंत, व्याकुल वसंत |

कोकिला की कूक पर,
शीतल सरिता मूक पर,
सुखद स्वर्णिम रश्मि पर,
सतत सुधा सिंचन पर,
अल्हड़ से प्रेम-आलिंगन पर,
आकुल वसंत, व्याकुल वसंत |



धन्यवाद
डॉ.अमित कुमार नेमा
04/02/2014

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

झाँकी हिंदुस्तान की : बढे चलो , बढे चलो

भारत दर्शन : बढे चलो , बढे चलो  

|| झाँकी हिंदुस्तान की :- इस श्रंखला की दूसरी पाती ||

इससे पूर्ववर्ती पाती के लियें देखें : भारत दर्शन : प्राक्कथन

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रेलगाड़ी की खिड़की से भोपाल रेलवे स्टेशन 


अब पढ़ें गतांक से आगे :

     हमने रात्रि शयन स्टेशन पर ही उपलब्ध रेलवे विश्रामगृह में किया , मेरा अनुभव है कि अगर आप रात-बिरात या खराब मौसम में किसी स्टेशन पर पहुंचते हैं तो आराम करने की सबसे अच्छी जगह " रेलवे रिटायरिंग रुम्स " ही है , यहाँ पर ( यह स्टेशन विशेष पर उपलब्ध सुविधाओं पर निर्भर करता है ) अपनी क्षमता व आवश्यकता के अनुसार डोरमेट्री से लेकर वातानुकूलित शयनकक्ष में ठहर सकते हैं । अगर आपके साथ कोई महिला सदस्य नहीं हैं , और आप को कुछ ही घंटो के लिए रुकना है ( जैसा कि हमारे साथ था ) तो डोरमेट्री अच्छा और सस्ता विकल्प है ।  रेलवे रिटायरिंग रुम्स में  रुकने से एक सहूलियत ये भी हो जाती है कि आप किसी भी समय कहीं जाने के लिये ऑटो. टैक्सी आदि आसानी से प्राप्त कर सकते हैं ।

      हम,  प्रात: 6 बजे हम जाग गये , ये दिनांक थी 18 नवम्बर 2009,  और तरोताजा होकर नीचे  ( हबीबगंज स्टेशन पर , और लगभग सभी स्टेशनों पर यात्री विश्रामगृह प्रथम तल पर ही होते हैं । ) प्लेटफार्म नं. 1 पर पहुंचे । हम में से अधिकतर यह सुनिश्चित करने के लिये कि वो जाग गये हैं और दिन की शुरुआत करने के लिए तैयार हैं, एक प्याला गर्म चाय का आसरा चाहते हैं ,  हम भी इसका अपवाद नहीं तो चाय पी, कुछ पानी की बोतलें, कुछ उपन्यास और कुछ पत्रिकायें खरीदीं । पूछताछ से मालूम हुआ कि हमारी  "भारत दर्शन स्पेशल ट्रेन " आखिरी प्लेटफार्म पर खड़ी हुई है । उस समय स्टेशन पर ज्यादा गाड़ियाँ नहीं थी तो पहले प्लेटफार्म से ही हमको फूलमालाओं से सजी वो रेलगाड़ी दिखाई दे रही थी । ठण्ड के दिन थे लगभग सुबह 7:30 बज रहे होंगे और आखिरी प्लेटफार्म पर धूप खिली हुई दिख रही थी तो हमने उसी तरफ कदम बढा दिये ।   


     हमें हमारे डब्बे ( Coach ) और शायिका ( Berth )  के बारे में पहले ही बता दिया गया था , गाड़ी के पास पहुँच कर हमने अपने आने की सूचना दी हमारे नाम के आगे निशान लगा दिया गया । इससे फुरसत हुये और अपने लगभग 4 सैकड़ा सहयात्रियों पर नजर दौड़ाई तो हम चौंक गये । हमारी इस यात्रा में धार्मिक स्थलों की बहुतायत थी इसलिये हमारे लगभग सभी सहयात्री वरिष्ठ नागरिक थे , हमने अपने किसी समवयस्क की तलाश में कुछ और नजरें दौड़ाई लेकिन नतीज़ा सिफर बाद में धीरे धीरे मालूम हुआ कि 30 वर्ष से कम आयु के कुल जमा 10 यात्री हैं जिनमें से हम दो भाई ( मैं और अंकित ) और एक युवती ही स्वतंत्र रूप से इस यात्रा पर आये थे । 2 दूध पीते बच्चे हैं और बाकी 5 अपने किसी न किसी परिजन के साथ हैं । लगता था कि हमारी इस अचकचाहट को ट्रेन के युवा स्टॉफ और उन्होंने भी महसूस किया जो अपने बुजुर्गों को इस यात्रा पर रवाना करने आये थे ऐंसा मैंने इसलिए कहा क्योंकि अधिकतर को हमने अपनी ओर देखकर , मुंह छुपा के हंसते हुये देखा । खैर ....

     अब इस जगह पर हम आपको इस विशेष गाडी का थोड़ा सा खाका समझा दें , यह तो हम पहले ही कह आये हैं कि यात्रा के लिए एक मात्र प्रावधान द्वितीय श्रेणी शयनयान का था  इस गाड़ी में ऐंसे 7 यात्री डिब्बे ( Sleeper Coach ) थे , 2 रसोइयान ( Pantry ) थे । सभी गाड़ियों की तरह आखिरी में एक गार्ड-केबिन ।  हमारा आरक्षण डिब्बा क्र. 4 में था । इसी कोच में स्टॉफ की शायिकायें थी । आप सभी ने द्वितीय श्रेणी शयनयान देखा होगा , इसमें 72 शायिकायें होती हैं जो 9 कूपों ( Coupe ) में विभक्त रहती हैं, हर एक कूपे में 8  शायिकायें होती हैं । नीचे दिये चित्र की तरह : 




     हमारी दोनों शायिकाएं नीचे वाली थीं , ऊपर की एक वृद्ध दम्पत्ति के लिये आरक्षित थीं किन्तु हमने यह स्थिति देखकर बिना अनुरोध के अपनी बर्थ उनको दे दी , एक मजे की बात यह है कि इस कूपे की 8 में से 4 बर्थ खाली थीं यानि हमारे और उन वृद्ध युगल के लिये स्थान की कोई कमी नहीं थी और हम चारों के पास बाहर का नज़ारा करने के लिए एक-एक खिड़की थी । इस कारण पूरी यात्रा में हमें बहुत सहूलियत हुई । 

     अब गाड़ी के रवाना होने की घोषणा हुई और हम सब अपने नियत स्थान पर आकर बैठ गये । अब हमें लगातार करीब 28 घंटे यात्रा करते हुये गाड़ी में ही बिताने थे , हम अपने गन्तव्य  "द्वारका" अगले दिन  ( 19 नवम्बर ) को पहुंचने वाले थे ।  प्रत्येक कोच में एक सहायक और एक सुरक्षा कर्मी की व्यवस्था थी । गाड़ी के रवाना होने के कुछ देर बाद हमारे कोच के नौजवान  सहायक हमारे पास आये और हमें एक परिचय पत्र बना कर दिया और यह जानकर कि मैं एक चिकित्सक हूँ, मेरा नाम सूची में तारांकित भी कर लिया  । कुछ ही देर में सुखद आश्चर्य हुआ जब हम सबको गर्मागर्म चाय पेश की गई और उसके तत्काल पश्चात ही नाश्ता , आश्चर्य इसलिये हुआ क्योंकि भोजन की व्यवस्था शुल्क में शामिल है ये तो हमें मालूम था लेकिन चाय/कॉफ़ी और नाश्ता का हमने नहीं सोचा हुआ था । चाय-नाश्ता करने के बाद सब अपने आप को व्यवस्थित करने में लग गये , हम में से अधिकतर ने औपचारिक (Formal Wears) परिधान उतार कर आरामी (Casual) कपड़े पहन लिए ।  अब शुरू हुआ गाड़ी में सूचना देने के लिए स्पीकर लगाने का काम शुरू , हर कोच में 2-2 स्पीकर लगाये गये । इस ध्वनि विस्तारक प्रणाली का नियन्त्रण कक्ष भी हमारे कोच में ही था | 

     दोपहर में जब हम उज्जैन/नागदा जंक्शन पहुंचने वाले थे तब हम सबको भोजन परोसा गया, खाना, प्लास्टिक के  बने हुये उपयोग करो और फेंको  ( Use & Throw ) वाले एक ढक्कनदार  चौकोर डिब्बे में था , इस में अंदर खंड बने हुये थे जिनमें भोजन सामग्री रखी हुई थी , भोजन में 2 सब्जियां, दाल, रायता, चावल, अचार और परांठे अलग से एल्युमिनियम फ़ाइल में लिपटे हुये थे | भोजन के साथ ही एक पैक्ड ग्लास में पेयजल था । भोजन की गुणवत्ता और स्वाद संतुष्टिप्रद था । एक बार भोजन-कार्यक्रम शुरू हो जाने के बाद कर्मचारियों ने मनुहार के साथ और लेने के लिये आग्रह किया । ऐंसा लगता था कि जैसे कोई प्रीतिभोज हो रहा हो । खाना खाने के बाद लगभग हम सभी आराम फरमाने लगे । 

     अभी मेरी झपकी लगी ही थी कि स्टॉफ में से कोई आया और मुझसे रसोइयान में चलने का अनुरोध किया, मैं वहाँ पहुंचा तो देखा कि वहां खाना बनाने वाले लडकों में से एक बहुत जोरों से चीख रहा है । मालूम हुआ कि वह रात्रि भोजन हेतु चावल पकाने के लिये पानी उबाल रहा था कि किसी असावधानी के कारण वह खौलते हुये पानी का भगौना उसके ऊपर ही पलट गया , यहाँ ध्यान देने की बात है कि चलती हुई रेलगाड़ी में करीब सवा चार सौ व्यक्तियों का नाश्ता, दो समय की चाय/काफी और दो समय का भोजन बनाना अपने आप में भी एक चुनौती वाला काम है , इसलिये खाना बनाने के लिये बहुत बड़े आकार के बर्तन उपयोग में लाये जाते थे । मैंने उस लडके की कमीज़ उतरवाई । उसकी पूरी पीठ से लेकर कमर और नितम्बों तक की त्वचा जलकर अलग हो गई थी , उबलते हुये पानी जैसे किसी द्रव से जलना स्केलडिंग ( Scalding ) कहलाता है और यह बहुत पीड़ादायक होता है , घाव तो गहरा नहीं होता लेकिन त्वचा के जल जाने तंत्रिकाएं भी झुलस जाती है जिससे दर्द और जलन असहनीय होती है । इस युवक  का उपचार अस्पताल में भर्ती  करके ही किया जा सकता था मैंने प्राथमिक उपचार करके  यह बात स्टॉफ को बता दी । बाद में मालूम हुआ कि उस युवक को मेघनगर में उतार कर अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है ।    

     शाम की चाय के समय तक हम गोधरा पहुँच चुके थे , गोधरा स्टेशन आते ही एक बात दिमाग में कौंध गई कि यही वह जगह है जहाँ से 2002 में दंगों की शुरुआत हुई थी । एक सिहरन सी शरीर में दौड़ गई ।  हमारी ट्रेन जैसी ही किसी ट्रेन ( साबरमती एक्सप्रेस ) में 27 फरवरी 2002 को असामाजिक तत्वों ने साजिश रचकर  पेट्रोल छिडक कर आग लगा दी थी , जिसमें 59 यात्री जिन्दा जल-भुनकर असमय काल के गाल में समा गये थे और फिर इस विभीषका ने गुजरात को अपनी चपेट में ले लिया , इस घटना के 12 साल बाद भी यह मुद्दा विभिन्न कारणों से चर्चा में बना रहता है । लेकिन वो साल दूसरा था और ये साल दूसरा है , तब से साबरमती में भी बहुत पानी बह गया । 

     सूर्यास्त हो चुका था और थोड़ी ही देर में रात की कालिमा छाने लगी , नियत समय पर रात्रि भोजन परोसा गया और हम सब  भोजन करके , सोने की तैयारी करने लगे, इसी समय पेंट्री में काम करने वाला एक नवयुवक जो बंगाली था और हम लोगों को खाना परोसता था ,  हमारे पास आया और हमसे एक खाली पड़ी बर्थ पर सोने की अनुमति माँगी जो हमने उसे सहर्ष दे दी | अब  हमने भी अपनी बर्थ पर चादर बिछाई , तकिया फुलाया और कंबल तानकर निद्रा देवी के आगोश में समा गये । 

     चलते-चलते आपको बता दें कि मध्यप्रदेश का रतलाम जंक्शन अपने रतलामी सेव ( नमकीन ) के लिये प्रसिद्ध है , और यही वह जंक्शन है जहाँ से गुजरात और राजस्थान जाने के लिये मार्ग विभक्त होता है यह भारत के व्यस्ततम रेलवे स्टेशनों में से एक है |  

काली रातों को भी रंगीन कहा है मैंने
तेरी हर बात पे आमीन कहा है मैंने
( राहत इन्दौरी )


तब तक के लिये अनुमति दीजिये , कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें ............ 

  





सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

झाँकी हिंदुस्तान की : प्राक्कथन

भारत दर्शन : प्राक्कथन 

|| झाँकी हिंदुस्तान की :- इस श्रंखला की पहली पाती ||

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तुम्हारे आभार की लिपि में प्रकाशित
हर डगर के प्रश्न हैं मेरे लिए पठनीय
कौन-सा पथ कठिन है...?
मुझको बताओ
मैं चलूँगा।

( दुष्यंत कुमार )





     "यात्रा" यह शब्द ही अपने आप में जीवन का पूरा व्याकरण है । जन्म से लेकर मृत्यु भी एक सफर है और इस एक सफर में ना जाने कितने सफर हम तय करते हैं । "यात्रा" नाम ही रोमाँच से भर देता है ।  कुछ मनचाहे और कुछ अनचाहे, कुछ सुखांत और कुछ दुखांत तज़ुर्बे  , अनोखी अनुभूतियाँ , किसी स्थान का अपने दृष्टिकोण से अन्वेषण , आँखों से होकर गुजरता एक एक नज़ारा अपने आप में किताब जैसा होता है ।   सहयात्री और रास्तों में मिलने वाले लोग आपको कई बार किसी मुद्दे को एक बिलकुल नये आयाम से सोचने पर विवश कर देते हैं । यात्रा के दौरान रोज़ाना के मामलात से ही निकल के एक बिलकुल नई शै आपके सामने आ जाती है , और आप विस्मृत से हो जाते हैं  । इसके अनुभव सुनाने को , बताने को , लिखने को मन आकुल हो उठता है । और कुछ जगहों पर तो आप फिर से भी जाना चाहते हैं , बार-बार जाना चाहते हैं । 

     वर्ष 2009 के अक्टूबर के दूसरे हफ्ते के दौरान रेल पर्यटन की इस वेबसाइट पर निगाह पड़ी, और भारत दर्शन पर्यटक रेलगाड़ी का एक यात्रा कार्यक्रम  मन को भा गया । घर-परिवार और मित्रों में चर्चा की , लेकिन कुछ ने यात्रा की अवधि जो लगभग 2 सप्ताह थी , तो कुछ ने अन्यान्य कारणों से साथ चलने में असमर्थता प्रकट की । फिर भी हम 4  जने चलने को तैयार हो गये लेकिन उनमें से भी दो बाद में चलने से इंकार करने लगे  तो बचे दो,  एक तो मैं और दूसरा मेरा छोटा भाई अंकित, हम दोनों ने अपने टिकिट आरक्षित करवा लिये जिनका शुल्क रु. 7200. 00  / प्रतिव्यक्ति ( भोजन व दर्शनीय स्थानों के भ्रमण सहित ) के लगभग था । यात्रा के लिये एक मात्र प्रावधान था द्वितीय श्रेणी शयनयान का, यात्रा शुरू होने में अभी लगभग  20 दिन शेष थे और कुछ कारणवश हम लोगों को भी अपनी यात्रा रद्द होती प्रतीत होने लगी लेकिन धीरे-धीरे सब व्यवस्थित हो गया और हमारा जाना सुनिश्चित हो गया ।

     अब इस यात्रा की रूप-रेखा, योजना कुछ इस तरह की थी :-:  यह एक रेल-यात्रा थी जिसकी शुरुआत  हबीबगंज रेलवे स्टेशन ( भोपाल, मध्यप्रदेश ) से होना थी,  और यहाँ से यह गुजरात, राजस्थान, उ.प्र., पंजाब और जम्मू के पर्यटक स्थानों पर जाना थी ।  इसके करीब दो दिन पहले हमें एक फोन आया करने वाले सज्जन थे राहुल उन्होंने हमें संक्षिप्त रूप से बताया कि यात्रा किस प्रकार होगी, आपको क्या क्या सामान साथ ले के आना चाहिये , एक बात जो उन्होंने बेबाक हो के कही "यात्रा में आप किसी लक्ज़री की आशा न रखिये ।" ये राहुल जी भी यात्रा में हमारे साथ ही रहे ।  भ्रमण की योजना कुछ इस प्रकार समायोजित की गई थी कि एक स्थान से दूसरे स्थान का सफर रातों-रात और दिन में वहाँ के दर्शनीय स्थानों की सैर । यानि घूम-फिर के आओ और रेलगाड़ी में ही पसर जाओ , हाँ कुछ स्थानों पर जरुर रात्रि विश्राम की व्यवस्था धर्मशाला में की गई थी । अब हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते जायेंगे वैसे-वैसे आप इस यात्रा के मजेदार पहलुओं से परिचित होते जायेंगे, यात्रा 18 नवम्बर 2009 से शुरू होना थी ।



     ठंड की शुरुआत हो चुकी थी तो हमने ( मैं और अंकित ),  सामान्य कपड़ो के साथ-साथ गर्म कपड़े भी रख लिये , और हाँ , ये भी कहा गया था कि ट्रेन में आपको बिछौना उपलब्ध नहीं करवाया जायेगा तो हमने दो चादरें, दो हल्के कम्बल और दो हवा से फुलाये जाने वाले तकिये भी रख लिये, बहुत मना करने पर भी माँ ने सूखा, सफरी नाश्ता भी रख दिया जो तादाद में इतना था कि एक थैला उसी से भर गया । पिताजी भी चिकित्सक और मैं भी तो पिताजी  ने  एक अच्छा-खासा फर्स्ट-एड बॉक्स भी तैयार कर दिया जो इस यात्रा में कहाँ-कहाँ व कैसे-कैसे काम आया ये आपको आगे मालूम होता जायेगा । थोड़े में कहें तो यात्रा की सभी जरूरी तैयारियां पूरी कर लीं । और सबकी सारी बहुत-बहुत जरूरी हिदायतों को सुनकर और उनके पालन का आश्वासन देकर हमने अपने सफर की शुरुआत की । 

     रात की एक बस से हम भोपाल के लिए रवाना हुये, इस बस ने हमें रात के लगभग 2 बजे भोपाल पहुंचाया , मैं भोपाल में ही पढ़ा हूँ इसलिये भोपाल मेरा जाना-माना शहर है । इतनी देर रात किसी मित्र या रिश्तेदार को परेशान करना मुझे ठीक नहीं लगा , हमारी ट्रेन रवाना होने का समय भी हमें प्रात: 8 बजे का बताया गया था   तो हम नादरा ( पुराना ) बस स्टैंड से ऑटो करके  हबीबगंज रेलवे स्टेशन आ गये , और यहीं पर रेल विश्रामगृह की डोरमेट्री में रात्रि विश्राम किया । 

     चलते-चलते दो बातें आपको बता दें पहली तो यह कि इस यात्रा-वृतांत श्रंखला का शीर्षक  "झांकी हिंदुस्तान की  " कवि पं. प्रदीप ( ए मेरे वतन के लोगो के गीतकार ) के प्रसिद्ध गीत "आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झाँकी हिंदुस्तान की" से लिया गया है । यह शीर्षक चुनने का कारण यह है कि इस गीत में वर्णित बहुत से स्थानों का मैंने अपनी इस यात्रा के दौरान भ्रमण किया । उपशीर्षक उस स्थान या प्रान्त विशेष के लिए होगा जो उस पाती में बयाँ किया जायेगा और दूसरी यह कि पश्चिम मध्य रेलवे का हबीबगंज स्टेशन भारत का पहला ISO 9001 प्रमाणित स्टेशन है ।

तब तक के लिये अनुमति दीजिये , कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें ............