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बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

झाँकी हिंदुस्तान की : जागो मोहन प्यारे

भारत दर्शन : जागो मोहन प्यारे 

|| झाँकी हिंदुस्तान की :- इस श्रंखला की तीसरी पाती ||

इससे पूर्ववर्ती पाती के लियें देखें :झांकी हिंदुस्तान की : बढे चलो, बढे चलो

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चित्र 1 
चित्र 2 
[ इससे पहले की हम अपनी यात्रा को आगे बढायें, मैं आपको अपने ब्लॉग के संबंध में कुछ बताना चाहता हूँ । आलेखों को पढने के दौरान अगर आप किसी शब्द या विषय के बारे में और अधिक जानकारी पाना चाहते हैं तो मैंने अपने ब्लॉग पर विकिपीडिया का विकल्प दिया हुआ है । यह आप मेरे ब्लॉग पर बांयी ओर पा सकते हैं  (चित्र क्र.  1 में लाल घेरे में दर्शाये अनुसार ) । ब्लॉगर के अतिरिक्त आप मुझसे फेसबुक पर भी संपर्क कर सकते हैं , इसके लिए आपको मात्र यह करना है कि मेरे ब्लॉग पर ऊपर दांयी ओर दिये गये फेसबुक बैज को क्लिक करना है (चित्र क्र.  1 में हरे घेरे में दर्शाये अनुसार ) । इसके अतिरिक्त अगर आप किसी सामग्री का अनुवाद किसी भाषा में करना चाहते हैं तो गूगल अनुवादक विडगेट भी ब्लॉग पर दांयी ओर नीचे दिया गया है  (चित्र क्र.  2  में पीले  घेरे में दर्शाये अनुसार )  । अगर आप को दिये गये चित्र देखने में असुविधा हो तो आप चित्रों पर क्लिक करके इन्हें बड़े आकार में देख सकते हैं । यह तो वह कुछ काम हुये जो मैंने अपनी ओर से आपके ब्लॉग अनुभव को उपयोगी व आनन्ददायक बनाने के लिये किये हैं । मेरे ब्लॉग के प्रस्तुतिकरण, सामग्री के विषय, लेखन के विषय में मुझे आपके अमूल्य सुझावों की नितांत आवश्यकता है । आशा है आप मुझे कृतार्थ करेंगे । 
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गतांक से आगे :- 

यह भारत दर्शन रेल यात्रा पर हमारी पहली रात थी , रात गुजरती जा रही थी , रेलगाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ती जा रही थी और हम नींद के आगोश में समाये हुये थे । ठण्ड के दिनों में सूर्योदय कुछ देर से होता है और दिन भर के सफर की बोरियत थी तो नींद तो बड़ी मीठी लगी हुई थी । अचानक कानों में संगीत लहरी गूंजी बहुत ही मधुर आवाज़ लता मंगेशकर की । पहले तो हमें लगा कि शायद सपना देख रहे हैं फिर कुछ चैतन्य से हुये तो ज्ञात हुआ कि यह गीत की ध्वनि स्पीकर से आ रही है , गीत था  "जागो मोहन प्यारे" हमने तो अपनी यात्रा की लगभग प्रत्येक भोर यह सुना , जरा आप भी सुन कर देखिये :




     यह सुबह सुबह का समय था, दिनांक थी 19 नवम्बर 2009 ,  और हम राजकोट पहुँचने वाले थे, द्वारका पहुंचने में अभी बहुत समय बाकी था । जागकर हमने अपने बिछौने को समेटा और चूँकि गाड़ी तो बदलनी नहीं थी  और खुशकिस्मती से हमारे पास स्थान की कोई कमी भी नहीं थी तो समेट कर हमने उसे ऊपर वाली बर्थ पर रख दिया । हमारे कोच में भी हलचल शुरू हो गई थी । जैसा कि पहले बता चूका हूँ कि अधिकतर यात्री वरिष्ठ नागरिक थे , महिलायें भी काफी संख्या में थीं तो हमने शिष्टाचार का पालन करते हुये , प्रसाधन सुविधाओं का उपयोग करने में जरा भी हडबडी नहीं की और एक डेढ़ घंटे में जब अधिकांश लोग निवृत्त हो चुके तो हमने इत्मीनान से मुंह धोया, ताज़ा दम हुये , और चल दिये पेंट्री की तरफ क्योंकि हुआ ये था कि जब सबको चाय पिलाई जा रही थी उस समय हमने बिना मुंह धोये होने के कारण वो पी नहीं थी , और तरोताजा होने के बाद चाय की तलब बड़ी जोरों से लग रही थी , तो हमने पेंट्री में जाकर चाय पीने की इच्छा जताई जो तत्काल पूरी की गई । लेकिन हमें लगा कि हमने पहले से ही व्यस्त इन लोगों का काम कुछ और बढ़ा दिया और इसका उपाय भी हमने तत्काल खोज लिया हमने निश्चय किया कि अब से हम ही कुछ पहले उठ जाया करेंगे जिससे हमें भी असुविधा न हो और दूसरों को भी न हो । 

     प्रात: लगभग साढ़े सात बजे हम राजकोट स्टेशन पहुंचे , हमें बताया गया था कि हम प्लेटफार्म पर उतर सकते हैं पर रहें गाड़ी के आसपास ही , जब भी ऐंसा होता था कि गाड़ी किसी स्टेशन पर रुक जाये तो कोच के सुरक्षा कर्मी दरवाजों पर आ जाते थे , जिससे कोई अन्य यात्री भूलवश इस विशेष गाड़ी में न चढ़ जाये । राजकोट के प्लेटफार्म क्र. 1 पर हमारी गाड़ी लगी हुई थी और हम गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे थे । अब समय आ गया है कि हम आपको अपने कुछ सहयात्रियों से परिचित करवाते चलें क्योंकि हम एक या दो दिन के लिये साथ में नहीं थे , बल्कि लगभग दो सप्ताह का हमारा साथ रहने वाला था । सबसे निकटस्थ से प्रारम्भ करते हुये समय-समय पर आपको सबसे परिचित करवाते जायेंगे । आपको याद होगा कि हमारे कूपे की 8 बर्थों पर हम चार ही यात्री थे । दो तो मैं और अंकित   और दो एक बुजुर्ग दम्पत्ति , सबसे पहले आपका परिचय इन्ही से करवाते हैं : 

अंकित, तिवारी दम्पत्ति के साथ 

     इस चित्र में जो बुजुर्ग सज्जन दिखाई दे रहे हैं ये हैं  श्री पी.डी.तिवारी जी , जो विदिशा (म.प्र.) से थे , यही थे वो जिनको हमने अपनी निचली बर्थ दे दी थीं।   इनकी गोद में जो प्यारा सा बच्चा है वो हमारे बाजू वाले कूपे के सोनी दम्पत्ति का चिरंजीव है जो गुना (म.प्र.) के थे । यूँ तो तिवारी जी की आयु लगभग 75 वर्ष थी , नगरपालिका से सेवानिवृत थे लेकिन हंसमुख और बहुत खुले दिल के सज्जन थे , हमारी आयु में इतना अंतर होने के बाद भी वो पहले ही दिन से हमारे मित्र और घर के सम्माननीय सदस्य जैसे हो गये थे । वो हमें डॉक्टर साहब कह कर संबोधित करते थे और हम उन्हें दादाजी । वो मुंशी प्रेमचन्द की मशहूर कहानी 'बूढी काकी' का एक वाक्य है ना  कि : 
बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है 
     बिलकुल वैसे ही थे तिवारी दादा , बालसुलभ स्वभाव , अमूमन वृद्धों का युवाओं के कार्य-कलापों के प्रति जो बेरुखी और विरोध का रवैया होता है उसका उनमें नितांत अभाव था , अब हमें नाश्ता दिया गया जो शायद उपमा था , एक दिन-रात के संग के बाद हम सभी एक दूसरे से घुलने की कोशिश कर रहे थे । समय गुजरता जा रहा था और बहुत से लोगों को नहाने की इच्छा जोर मारने लगी थी , कुछ ने तो बाकायदा कहना शुरू भी कर दिया कि किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकवा के सबके नहाने का बन्दोबस्त कर देना चाहिये और बेचारे यात्रा प्रबन्धक समझाते समझाते परेशान थे कि आपके नहाने और भोजन का इन्तेजाम द्वारका में ही किया गया है । जब अच्छी तरह से वो परेशान हो चुके तो उन्होंने लिया सबको एक साथ सम्बोधित करने का निर्णय फिर सबको बताया गया कि जब आप द्वारका पहुंचेंगे तो आपको स्टेशन के बाहर बस लगी हुई मिलेंगी ( यात्रा के शुल्क में ही शामिल ) जो कि संख्या में १० होंगी तो फलां-फलां कोच के इस से लेकर इस क्र. तक की बर्थ के यात्रियों को इस क्र. की बस में सवार होना है , शेष यात्रा में लगभग यही क्रम बरकरार रहा , जब कभी सीटों की संख्या के कारण बस घट या बढ़ जाती थीं तो संशोधित क्रम हमें बता दिया जाता था । 

     रास्ते में लाल माटी वाले कपास के खेतों को देखा, उस समय कपास की चुनाई का मौसम था , कुछ कुछ खेतों में यह काम भी लगा हुआ था , अब जो पानी हम पी रहे थे वह खारा था , जिसका स्वाद बिलकुल भी पसंद नहीं आ रहा था , लेकिन क्या किया जाये मजबूरी में सब करना पड़ता है । पूरा गुजरात एक सिरे से दूसरे सिरे तक पार करके हम दोपहर में लगभग साढ़े बारह बजे द्वारका पहुंचे , हमने जो रास्ता तय किया उसे आप नीचे दिये गये इस मानचित्र से समझ सकते हैं , इस मानचित्र में लाल घेरे में  नीले रंग से जो पथ रेखांकित किया गया है उसे हमने तय किया : 

भोपाल से द्वारका

  और इस सफर के कुछ मुख्य स्टेशन इस प्रकार हैं , भोपाल-उज्जैन-रतलाम-वड़ोदरा-आणंद-अहमदाबाद-राजकोट-जूनागढ़-वेरावल-द्वारका , उस समय द्वारका का रेलवे स्टेशन निर्माणाधीन था , प्लेटफार्म कहने को तो 2 थे लेकिन वस्तुत: एक ही प्लेटफार्म किसी हद तक पूरा हुआ था , दूसरा तो अभी ठीक से बना भी नहीं था । दोनों को आप नीचे दिये चित्र में देख सकते हैं :

तत्कालीन द्वारका रेलवे स्टेशन


     इस चित्र में जो रेलगाड़ी दिखाई दे रही है , वह हमारी ही रेलगाड़ी है जो कि प्लेटफार्म क्र.02 पर लगी थी और हम ओवरहेड पुल से प्लेटफार्म क्र.01 से होते हुये स्टेशन के बाहर हुये थे । हमें यह पहले ही बता दिया गया था कि पूरा सामान साथ ले जाने की आवश्यकता नहीं है । हम जो कपड़े पहने हुये हैं उनके अलावा एक जोड़ी कपड़े और तौलिया, साबुन , शैम्पू जैसी चीजें और मोबाईल फोन वगैरह बस साथ ले जायें , जो नियमित रूप से कोई दवा लेते हैं वो अपनी दवा साथ ले चलें । तो हमने भी एक जोड़ी कपड़े और साबुन वगैरह एक झोले में डाले और निकल आये गाड़ी से बाहर, यात्रियों को उतार कर हमारी गाड़ी यार्ड में खड़ी रहती थी , जहाँ उसकी सफाई आदि होती थी । प्लेटफार्म से बाहर निकले तो तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक बाहर बस लगी हुईं थी जो हमें हमारे अगले पड़ाव तक ले जाने वाली थीं ।

     जब लिखना शुरू किया था तब इरादा तो यह था कि इसी पाती में द्वारका भ्रमण कर लिया जाये लेकिन अब लग रहा है कि ऐंसा किया तो यह पाती बहुत लम्बी और बोझिल हो जायेगी । अब आपको रेल के यात्रा कार्यक्रम की रूपरेखा मालूम हो ही गई है तो इसको दोहराने से बचूँगा और एक दिन की यादें , एक ही पाती में समेटने की कोशिश करूंगा । चलते चलते आप को एक बात बता दें कि यात्रा श्रंखला की हमारी अगली पाती का शीर्षक होगा "कैसे हो द्वारकाधीश" इस शीर्षक से जुडा  हुआ एक बड़ा ही सुंदर , रोचक प्रसंग भी होगा । बने रहिये अमित के साथ । एक बार आपको फिर याद दिला दें कि  मुझे आपके अमूल्य सुझावों की नितांत आवश्यकता है । आशा है आप मुझे कृतार्थ करेंगे । 

     
    तब तक के लिये अनुमति दीजिये , कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें ............

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!बहुत खूब
    तिवारी दादा का चित्रण तो ऐसा की मानो अभी हमारे सामने बैठे हो। ऐसे दिलदार शख्सियत बहुत ही कम पाए जाते है आजकल।इनके बारे में जानके अच्छा लगा। वैसे मै आपको बोलने ही वाला था की क्या बात है सर इन्तजार की घड़ियाँ कुछ ज्यादा ही लम्बी हो रही है। पर तभी आपने एक जीवंत चित्रण से मन की अधीरता को शांत कर दिया। अभी के लिए बस इतना ही कहना चाहूँगा की आपसे नम्र निवेदन है की जब भी कुछ प्रकाशित करें मुझे कृपया सूचित कर दें ताकि मै भी आपके अनुभव का लाभ उठा सकूँ। वैसे मेरी खुद की कोशिश रहती है की मै स्वतः संज्ञान लूँ पर आने वाले दिनों की मेरी व्यस्तता आपसे छुपी नहीं है। अतः कृपया मुझे सूचित कर दें ताकि जैसे ही मेरी नजर जाए मै भी आपसे और आपके अनुभव से कुछ सीख सकूँ।
    आपका स्नेहिल स्वप्निल

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    1. प्रिय भ्राता स्वप्निल जी , आपकी त्वरित, आत्मीय व सारगर्भित टिप्पणी मेरे लिए उत्प्रेरक का कार्य करती है | हमसफर अपनी यादें मानस-पटल पर छोड़ ही जाते हैं | कभी कभी किसी कारणवश मामूली से ज्यादा इंतज़ार करना पड़ जाता है और वह आप करते हैं यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है | आगे से मैं प्रकाशन के साथ ही आपको सूचित कर दिया करूंगा | सब कुछ के लिये मेरा धन्यवाद, आभार स्वीकार करें |

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  2. एक से झाँकी हिंदुस्तान की : जागो मोहन प्यारे, मेरी इस प्रस्तुति को आज की छत्रपति शिवाजी महाराज की ३८४ वीं जयंती पर ब्लॉग बुलेटिन में शामिल करने हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद ! हर्षवर्धन जी , आपका प्रोत्साहन सदैव मुझे बल प्रदान करता है | यही कृपा बनाये रखें !

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