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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

झाँकी हिंदुस्तान की : बढे चलो , बढे चलो

भारत दर्शन : बढे चलो , बढे चलो  

|| झाँकी हिंदुस्तान की :- इस श्रंखला की दूसरी पाती ||

इससे पूर्ववर्ती पाती के लियें देखें : भारत दर्शन : प्राक्कथन

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रेलगाड़ी की खिड़की से भोपाल रेलवे स्टेशन 


अब पढ़ें गतांक से आगे :

     हमने रात्रि शयन स्टेशन पर ही उपलब्ध रेलवे विश्रामगृह में किया , मेरा अनुभव है कि अगर आप रात-बिरात या खराब मौसम में किसी स्टेशन पर पहुंचते हैं तो आराम करने की सबसे अच्छी जगह " रेलवे रिटायरिंग रुम्स " ही है , यहाँ पर ( यह स्टेशन विशेष पर उपलब्ध सुविधाओं पर निर्भर करता है ) अपनी क्षमता व आवश्यकता के अनुसार डोरमेट्री से लेकर वातानुकूलित शयनकक्ष में ठहर सकते हैं । अगर आपके साथ कोई महिला सदस्य नहीं हैं , और आप को कुछ ही घंटो के लिए रुकना है ( जैसा कि हमारे साथ था ) तो डोरमेट्री अच्छा और सस्ता विकल्प है ।  रेलवे रिटायरिंग रुम्स में  रुकने से एक सहूलियत ये भी हो जाती है कि आप किसी भी समय कहीं जाने के लिये ऑटो. टैक्सी आदि आसानी से प्राप्त कर सकते हैं ।

      हम,  प्रात: 6 बजे हम जाग गये , ये दिनांक थी 18 नवम्बर 2009,  और तरोताजा होकर नीचे  ( हबीबगंज स्टेशन पर , और लगभग सभी स्टेशनों पर यात्री विश्रामगृह प्रथम तल पर ही होते हैं । ) प्लेटफार्म नं. 1 पर पहुंचे । हम में से अधिकतर यह सुनिश्चित करने के लिये कि वो जाग गये हैं और दिन की शुरुआत करने के लिए तैयार हैं, एक प्याला गर्म चाय का आसरा चाहते हैं ,  हम भी इसका अपवाद नहीं तो चाय पी, कुछ पानी की बोतलें, कुछ उपन्यास और कुछ पत्रिकायें खरीदीं । पूछताछ से मालूम हुआ कि हमारी  "भारत दर्शन स्पेशल ट्रेन " आखिरी प्लेटफार्म पर खड़ी हुई है । उस समय स्टेशन पर ज्यादा गाड़ियाँ नहीं थी तो पहले प्लेटफार्म से ही हमको फूलमालाओं से सजी वो रेलगाड़ी दिखाई दे रही थी । ठण्ड के दिन थे लगभग सुबह 7:30 बज रहे होंगे और आखिरी प्लेटफार्म पर धूप खिली हुई दिख रही थी तो हमने उसी तरफ कदम बढा दिये ।   


     हमें हमारे डब्बे ( Coach ) और शायिका ( Berth )  के बारे में पहले ही बता दिया गया था , गाड़ी के पास पहुँच कर हमने अपने आने की सूचना दी हमारे नाम के आगे निशान लगा दिया गया । इससे फुरसत हुये और अपने लगभग 4 सैकड़ा सहयात्रियों पर नजर दौड़ाई तो हम चौंक गये । हमारी इस यात्रा में धार्मिक स्थलों की बहुतायत थी इसलिये हमारे लगभग सभी सहयात्री वरिष्ठ नागरिक थे , हमने अपने किसी समवयस्क की तलाश में कुछ और नजरें दौड़ाई लेकिन नतीज़ा सिफर बाद में धीरे धीरे मालूम हुआ कि 30 वर्ष से कम आयु के कुल जमा 10 यात्री हैं जिनमें से हम दो भाई ( मैं और अंकित ) और एक युवती ही स्वतंत्र रूप से इस यात्रा पर आये थे । 2 दूध पीते बच्चे हैं और बाकी 5 अपने किसी न किसी परिजन के साथ हैं । लगता था कि हमारी इस अचकचाहट को ट्रेन के युवा स्टॉफ और उन्होंने भी महसूस किया जो अपने बुजुर्गों को इस यात्रा पर रवाना करने आये थे ऐंसा मैंने इसलिए कहा क्योंकि अधिकतर को हमने अपनी ओर देखकर , मुंह छुपा के हंसते हुये देखा । खैर ....

     अब इस जगह पर हम आपको इस विशेष गाडी का थोड़ा सा खाका समझा दें , यह तो हम पहले ही कह आये हैं कि यात्रा के लिए एक मात्र प्रावधान द्वितीय श्रेणी शयनयान का था  इस गाड़ी में ऐंसे 7 यात्री डिब्बे ( Sleeper Coach ) थे , 2 रसोइयान ( Pantry ) थे । सभी गाड़ियों की तरह आखिरी में एक गार्ड-केबिन ।  हमारा आरक्षण डिब्बा क्र. 4 में था । इसी कोच में स्टॉफ की शायिकायें थी । आप सभी ने द्वितीय श्रेणी शयनयान देखा होगा , इसमें 72 शायिकायें होती हैं जो 9 कूपों ( Coupe ) में विभक्त रहती हैं, हर एक कूपे में 8  शायिकायें होती हैं । नीचे दिये चित्र की तरह : 




     हमारी दोनों शायिकाएं नीचे वाली थीं , ऊपर की एक वृद्ध दम्पत्ति के लिये आरक्षित थीं किन्तु हमने यह स्थिति देखकर बिना अनुरोध के अपनी बर्थ उनको दे दी , एक मजे की बात यह है कि इस कूपे की 8 में से 4 बर्थ खाली थीं यानि हमारे और उन वृद्ध युगल के लिये स्थान की कोई कमी नहीं थी और हम चारों के पास बाहर का नज़ारा करने के लिए एक-एक खिड़की थी । इस कारण पूरी यात्रा में हमें बहुत सहूलियत हुई । 

     अब गाड़ी के रवाना होने की घोषणा हुई और हम सब अपने नियत स्थान पर आकर बैठ गये । अब हमें लगातार करीब 28 घंटे यात्रा करते हुये गाड़ी में ही बिताने थे , हम अपने गन्तव्य  "द्वारका" अगले दिन  ( 19 नवम्बर ) को पहुंचने वाले थे ।  प्रत्येक कोच में एक सहायक और एक सुरक्षा कर्मी की व्यवस्था थी । गाड़ी के रवाना होने के कुछ देर बाद हमारे कोच के नौजवान  सहायक हमारे पास आये और हमें एक परिचय पत्र बना कर दिया और यह जानकर कि मैं एक चिकित्सक हूँ, मेरा नाम सूची में तारांकित भी कर लिया  । कुछ ही देर में सुखद आश्चर्य हुआ जब हम सबको गर्मागर्म चाय पेश की गई और उसके तत्काल पश्चात ही नाश्ता , आश्चर्य इसलिये हुआ क्योंकि भोजन की व्यवस्था शुल्क में शामिल है ये तो हमें मालूम था लेकिन चाय/कॉफ़ी और नाश्ता का हमने नहीं सोचा हुआ था । चाय-नाश्ता करने के बाद सब अपने आप को व्यवस्थित करने में लग गये , हम में से अधिकतर ने औपचारिक (Formal Wears) परिधान उतार कर आरामी (Casual) कपड़े पहन लिए ।  अब शुरू हुआ गाड़ी में सूचना देने के लिए स्पीकर लगाने का काम शुरू , हर कोच में 2-2 स्पीकर लगाये गये । इस ध्वनि विस्तारक प्रणाली का नियन्त्रण कक्ष भी हमारे कोच में ही था | 

     दोपहर में जब हम उज्जैन/नागदा जंक्शन पहुंचने वाले थे तब हम सबको भोजन परोसा गया, खाना, प्लास्टिक के  बने हुये उपयोग करो और फेंको  ( Use & Throw ) वाले एक ढक्कनदार  चौकोर डिब्बे में था , इस में अंदर खंड बने हुये थे जिनमें भोजन सामग्री रखी हुई थी , भोजन में 2 सब्जियां, दाल, रायता, चावल, अचार और परांठे अलग से एल्युमिनियम फ़ाइल में लिपटे हुये थे | भोजन के साथ ही एक पैक्ड ग्लास में पेयजल था । भोजन की गुणवत्ता और स्वाद संतुष्टिप्रद था । एक बार भोजन-कार्यक्रम शुरू हो जाने के बाद कर्मचारियों ने मनुहार के साथ और लेने के लिये आग्रह किया । ऐंसा लगता था कि जैसे कोई प्रीतिभोज हो रहा हो । खाना खाने के बाद लगभग हम सभी आराम फरमाने लगे । 

     अभी मेरी झपकी लगी ही थी कि स्टॉफ में से कोई आया और मुझसे रसोइयान में चलने का अनुरोध किया, मैं वहाँ पहुंचा तो देखा कि वहां खाना बनाने वाले लडकों में से एक बहुत जोरों से चीख रहा है । मालूम हुआ कि वह रात्रि भोजन हेतु चावल पकाने के लिये पानी उबाल रहा था कि किसी असावधानी के कारण वह खौलते हुये पानी का भगौना उसके ऊपर ही पलट गया , यहाँ ध्यान देने की बात है कि चलती हुई रेलगाड़ी में करीब सवा चार सौ व्यक्तियों का नाश्ता, दो समय की चाय/काफी और दो समय का भोजन बनाना अपने आप में भी एक चुनौती वाला काम है , इसलिये खाना बनाने के लिये बहुत बड़े आकार के बर्तन उपयोग में लाये जाते थे । मैंने उस लडके की कमीज़ उतरवाई । उसकी पूरी पीठ से लेकर कमर और नितम्बों तक की त्वचा जलकर अलग हो गई थी , उबलते हुये पानी जैसे किसी द्रव से जलना स्केलडिंग ( Scalding ) कहलाता है और यह बहुत पीड़ादायक होता है , घाव तो गहरा नहीं होता लेकिन त्वचा के जल जाने तंत्रिकाएं भी झुलस जाती है जिससे दर्द और जलन असहनीय होती है । इस युवक  का उपचार अस्पताल में भर्ती  करके ही किया जा सकता था मैंने प्राथमिक उपचार करके  यह बात स्टॉफ को बता दी । बाद में मालूम हुआ कि उस युवक को मेघनगर में उतार कर अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है ।    

     शाम की चाय के समय तक हम गोधरा पहुँच चुके थे , गोधरा स्टेशन आते ही एक बात दिमाग में कौंध गई कि यही वह जगह है जहाँ से 2002 में दंगों की शुरुआत हुई थी । एक सिहरन सी शरीर में दौड़ गई ।  हमारी ट्रेन जैसी ही किसी ट्रेन ( साबरमती एक्सप्रेस ) में 27 फरवरी 2002 को असामाजिक तत्वों ने साजिश रचकर  पेट्रोल छिडक कर आग लगा दी थी , जिसमें 59 यात्री जिन्दा जल-भुनकर असमय काल के गाल में समा गये थे और फिर इस विभीषका ने गुजरात को अपनी चपेट में ले लिया , इस घटना के 12 साल बाद भी यह मुद्दा विभिन्न कारणों से चर्चा में बना रहता है । लेकिन वो साल दूसरा था और ये साल दूसरा है , तब से साबरमती में भी बहुत पानी बह गया । 

     सूर्यास्त हो चुका था और थोड़ी ही देर में रात की कालिमा छाने लगी , नियत समय पर रात्रि भोजन परोसा गया और हम सब  भोजन करके , सोने की तैयारी करने लगे, इसी समय पेंट्री में काम करने वाला एक नवयुवक जो बंगाली था और हम लोगों को खाना परोसता था ,  हमारे पास आया और हमसे एक खाली पड़ी बर्थ पर सोने की अनुमति माँगी जो हमने उसे सहर्ष दे दी | अब  हमने भी अपनी बर्थ पर चादर बिछाई , तकिया फुलाया और कंबल तानकर निद्रा देवी के आगोश में समा गये । 

     चलते-चलते आपको बता दें कि मध्यप्रदेश का रतलाम जंक्शन अपने रतलामी सेव ( नमकीन ) के लिये प्रसिद्ध है , और यही वह जंक्शन है जहाँ से गुजरात और राजस्थान जाने के लिये मार्ग विभक्त होता है यह भारत के व्यस्ततम रेलवे स्टेशनों में से एक है |  

काली रातों को भी रंगीन कहा है मैंने
तेरी हर बात पे आमीन कहा है मैंने
( राहत इन्दौरी )


तब तक के लिये अनुमति दीजिये , कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें ............ 

  





5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!बहुत खूब
    सफ़र के दौरान कभी ऐसा लगा ही नहीं की मै ये वृतांत पढ़ रहा हूँ अपितु ऐसा लगा की मानो मै ही सफ़र कर रहा हूँ।एक बार फिर से आपने हमारे साथ वो बच्चों वाला खेल खेला जिसमे हम अधिकांशतः छोटे बच्चों को कुछ उसके पसंद की वस्तु दिखाकर ललचाते है।खैर इस ललचाने का भी अपना एक अनूठा मजा है। उम्मीद है बहुत जल्द वृतांत का अगला भाग प्रकाशित कर हमारी लालच दूर करेंगे।
    आपका अपना स्नेहिल
    स्वप्निल

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    1. ढेर सारा धन्यवाद, स्वप्निल जी , आपको इस आलेख में जीवंतता दृष्टिगोचर हुई , यह मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नता की बात है | यात्रा दो सप्ताह लगभग की थी तो पूरा वृतांत लिखने में कुछ समय लगना स्वाभाविक है | और किसी आनंददायक वस्तु का सही लुत्फ़ तो थोड़ा-थोड़ा करके लेने में ही है | आप मेरे आलेखों में इतनी रूचि दिखाते हैं, इसका बहुत बहुत साधुवाद |
      सदा आपका
      अमित

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  2. मुझे यह सम्मान प्रदान करने हेतु मैं आपका हार्दिक आभारी हूँ | अवश्य ही आपके आदेश का पालन करूंगा | आपका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ |

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  3. बहुत बढ़िया ऐसे ही लिखते रहिये

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    1. धन्यवाद ! हौसलाअफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया

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