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सोमवार, 22 सितंबर 2014

ईशावास्योपनिषद् (प्रथम मन्त्र) की विवेचना

(संकलन )



उपनिषत – उप अर्थात समीप, व निषत-निषीदति अर्थात बैठने वाला | जो उस परमतत्व के समीप पहुँचाकर चुपचाप बैठ जाता है वह उपनिषद है | उपनिषत को ब्रह्मविद्या या आध्यात्मविद्या भी कहा जाता है | ब्रह्म के प्रतिपादक वेद के शिरोभाग या अंत में होने के कारण इसे उत्तरमीमांसा या वेदांत भी कहते हैं | वेद के अंगभूत संहिता, ब्राम्हण, आरण्यक में से ही ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक भागों को पृथक करके उन्हें उपनिषद नाम दिया गया है | उपनिषदों की संख्या अनेक है, अकेले अथर्ववेद में 52 उपनिषद हैं | 

ईशावास्योपनिषद् को प्रथम उपनिषद माना गया है | यह शुक्लयजुर्वेदसंहिता का चालीसवाँ अध्याय है, मन्त्र भाग का अंश होने से इसका विशेष महत्व है | शुक्लयजुर्वेदसंहिता के प्रथम उनतालीस अध्यायों में कर्मकाण्ड का निरूपण हुआ है | यह उस काण्ड का अंतिम अध्याय है और इसमें भगवत्त्वरूप ज्ञानकाण्ड का निरूपण किया गया है | इसके पहले मन्त्र के प्रथम  भाग में ईशावास्य शब्द आने से इसका नाम ईशावास्योपनिषद् हुआ |

अब हम इसी प्रथम मन्त्र की वैसी जैसी कि मैंने समझी विभिन्न शास्त्रों व विद्वानों के मत से युक्तिसंगत तुलनात्मक विवेचना देखेंगे- 

मन्त्र : ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। 
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥1॥ 

भावार्थ - 1 : अखिल ब्रम्हाण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन स्वरूप जगत है, यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है | उस ईश्वर को साथ रखते हुए इसे त्यागपूर्वक भोगते रहो ( इसमें ) आसक्त मत होओ (क्योंकि) धन, भोग्य पदार्थ किसका है ( अर्थात किसी का भी नहीं है )

भावार्थ – 2 : इस ब्रम्हाण्ड में जो कुछ भी यह जगत है यह सब का सब ईश्वर से व्याप्त है | उस ईश्वर के द्वारा जो तुम्हारे लिए त्याग किया गया है अर्थात प्रदान किया गया है, उसी को अनासक्त भाव से भोगो | किसी के भी धन की इच्छा मत करो | 

श्रीआदिशंकराचार्य जी की व्याख्या :

ईशा ईष्ट इतीट तेनेशा’ – जो ईशन ( शासन ) करे उसे ईट कहते हैं, उसका तृतीयान्त रूप ‘ईशा’ है | सबका ईशन करने वाला परमेश्वर परमात्मा है | वही सब जीवों का आत्मा होकर अन्तर्यामीरूप से सबका ईशन करता है | ‘स्वेन’ – अपने, या ( यह सब कुछ मैं ही हूँ ) ऐसा जानकर अपने परमार्थसत्यस्वरूप परमात्मा से यह सम्पूर्ण मिथ्याभूत चराचर ( जगत ) आच्छादन करने योग्य है | एषणाओं से रहित ( त्याग ) होकर यह भावना रखते हुए कि धनादि सब कुछ आत्मा से उत्पन्न हुआ तथा सब कुछ आत्मरूप ही होने के कारण मिथ्यापदार्थविषयक आकांक्षा न कर – ऐसा इसका तात्पर्य है | 

श्रीहरिकृष्णदास गोयन्दका की श्रीमद्भगवतगीता संगत व्याख्या ( क - घ ) एवं  विभिन्न विद्वानों के मत : 

( क ) मनुष्यों के प्रति वेद भगवान का पवित्र आदेश है कि अखिल विश्व ब्रह्मांड में जो कुछ भी यह चराचरात्मक जगत तुम्हारे देखने सुनने में आ रहा है सबका सब सर्वाधार, सर्वनियन्ता, सर्वाधिपति, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वकल्याण गुण स्वरूप परमेश्वर से व्याप्त है, सदा सर्वत्र उन्हीं से परिपूर्ण है : 

· उपरोक्त अर्थांश की संगत तुलना करें : श्रीमद्भगवतगीता ९/४ से : 


मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥

भावार्थ : मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत्‌ जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ॥९/४॥ 


- डॉ.राधाकृष्णन की इस श्लोक ( गी. ९/४ ) की व्याख्या : सम्पूर्ण विश्व का अस्तित्व लोकातीत परमेश्वर के कारण है और फिर भी इस संसार के रूप उस परमेश्वर को पूरी तरह न तो अपने अंदर रखते हैं और न उसे अभिव्यक्त करते हैं | उसकी परम वास्तविकता देशकालाधीन वस्तुओं की प्रतीति से बहुत ऊपर है | साथ ही वो इसके लिए श्रीमद्भगवतगीता के श्लोक संख्या ७/१२ का सन्दर्भ देते हैं जिसके अनुसार : 

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥

भावार्थ : और भी जो सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजो गुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू 'मुझसे ही होने वाले हैं' ऐसा जान, परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं॥ ७/१२

( ख ) इसका कोई भी अंश उन (परमेश्वर) से रहित नहीं है
· उपरोक्त अर्थांश की संगत तुलना करें : श्रीमद्भगवतगीता १०/३९ व ४२ से :

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ ॥

भावार्थ : और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो॥१०/३९

संत  नामदेव  कहते हैं  : सबै घट रामु बोलै, राम बिना को बोलै रे |
असथावर जंगम कीट पतंगम घटि-घटि रामु समाना रे ||

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥

भावार्थ : अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रायोजन है। मैं इस संपूर्ण जगत्‌ को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ॥१०/४२

- देखिये श्वेताश्व. उप. ६/८ : परास्यशक्ति विर्विधैव श्रूयते  ( भगवान की पराशक्ति अनेक प्रकार की सुनी जाती है )


( ग ) ऐंसा समझकर उन ईश्वर को निरंतर अपने साथ रखते हुए सदा सर्वदा उनका स्मरण करते हुए ही तुम इस जगत में त्याग भाव से केवल कर्तव्य पालन के लिए ही विषयों का यथा विधि उपभोग करो अर्थात यथार्थ विश्वरूप ईश्वर की पूजा के लिए ही कर्मों का आचरण करो | विषयों में मन को मत फंसने दो इसी में तुम्हारा निश्चित कल्याण है | 

· उपरोक्त अर्थांश की संगत तुलना करें : श्रीमद्भगवतगीता २/६४,३/९, व १८/४६ से :

रागद्वेषवियुक्तैस्तुविषयानिन्द्रियैश्चरन्‌।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

भावार्थ : परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥२/६४॥


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्रलोकोऽयंकर्मबंधनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥

भावार्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥ ३/९ ॥

- देखिये  पा.व्या. ३/३/९० : जिसमें देवताओं का पूजन हो , सभी वर्णों और आश्रमों के लोग जिसमें एकत्रित हों तथा उन्हें अन्न-वस्त्रादि का दाय-प्रदाय किया जावे उसे यज्ञ कहते हैं |

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥

भावार्थ : जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पति को सर्वस्व समझकर पति का चिंतन करती हुई पति के आज्ञानुसार पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही सर्वस्व समझकर परमेश्वर का चिंतन करते हुए परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वर के ही लिए स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करना 'कर्म द्वारा परमेश्वर को पूजना' है) मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है॥१८/४६॥

- देखिये  वाल्मीकि  रामायण  ( बालकाण्ड १/५७  ) : शबर्या पूजित: सम्यग्  ( शबरी ने भली-भांति पूजा की ) और रामचरितमानस ( अरण्यकाण्ड ३५/७ ) : सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे  , शबरी अपने स्वाभाविक कर्म सेवा को करती रही , उन्होंने कोई वेदपाठ नहीं किया एकमात्र भगवान की स्मृति और उनके प्रति समर्पण का उनको यह फल मिला कि स्वयं भगवान उनकी कुटीर पर पधारे और उनकी प्रशंसा की | 


( घ ) वस्तुत: ये भोग्य पदार्थ किसी के भी नहीं हैं | मनुष्य भूल से ही इनमें ममता और आसक्ति कर बैठता है | यह सब परमेश्वर के हैं और उन्हीं के लिए इनका उपयोग होना चाहिए | 

- देखिये कवितावली उत्तरकाण्ड ४२ ( गोस्वामी तुलसीदास ) : 
सुरसाज सो राज-समाजु, समृद्धि बिरंचि, धनाधिप-सो धनु भो।
 पवमानु-सो पावकु-सो, जमु, सोमु-सो, पूषनु -सेा भवभूषनु भो।। 
करि जोग, समीरन साधि , समाधि कै धीर बड़ो , बसहू मनु भो। 
सब जाय, सुुभायँ कहै तुलसी, जो न जानकीजीवनको जनु भो।।

भावार्थ : इंद्र के समान राजसामग्री हो गई, ब्रह्मा के समान ऐश्वर्य हो गया, और कुबेर के समान धन हो गया तथा वायु के समान वेगवान, अग्नि के समान तेजस्वी, यमराज के समान दण्डधारक, चन्द्रमा के समान शीतल और आह्लादकारी, और सूर्य के समान संसार को प्रकाशित करने वाले और संसार के भूषण बन गए हो; वायु को साधकर ( प्राणायाम करते हुए ) योगाभ्यास-समाधि के द्वारा बड़े धीर हो गए हो तो भी तुलसी सच्चे भाव से कहते हैं कि  ' अगर जानकीनाथ के सेवक न बन पाए तो यह सब व्यर्थ है |   

इस प्रकार ईशा.उप. का यह प्रथम मन्त्र ही संसार में भुक्ति से किस प्रकार मुक्ति सम्भव है इसका संदेश देता है, अब अपने  अमित को आज्ञा दीजिये, मैं आपके हृदय में विराजमान उस परमसत्ता को सादर प्रणाम करता हूँ कृपया स्वीकार करें ........... 








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