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मंगलवार, 10 नवंबर 2015

ग्राम्य नायक



जब भी सोशल मीडिया  पर   आते हैं तो पाते हैं कि 90% पोस्ट्स; राजनीति, टी.व्ही. चैनलों और उनके विख्यात या कुख्यात पत्रकारों के बारे में होती हैं। आपको बताना चाहेंगे कि हम यह सब देखते ही नहीं, क्यों नहीं देखते ? इसका एक ठोस कारण है।

क्योंकि इन सब को किसी नैतिक जिम्मेदारी का बोध नहीं है, यह मात्र व मात्र आपको भावनात्मक रूप से उद्वेलित करके अपनी टकसालें चला रहे हैं; समसामयिक घटनाक्रम को जानने हेतु अखबारों का सहारा है। यह तरीका भले ही पुराना हो पर कारआमद है। तो फिर हम देखते क्या हैं ?

हम देखते हैं "जयवंत उर्फ़ दादा वाडेकर " जैसे लोगों के बारे में, दादा ने अपना जीवन समर्पित किया है सीमांत कृषकों द्वारा हाथों से इस्तेमाल किये जाने वाले छोटे-छोटे से खेतिहर औजारों को कुशल बनाने में, नये औजारों के गढ़ने में; शायद आपको मेरी बात समझ ना आई हो तो एक उदाहरण से समझाता हूँ :-





'खेत में फसल की कटाई करने वाले हंसिये का वजन लगभग 250 ग्रा. होता है, कटाई के दौरान लगातार इसे चलाने पर मजदूरों ( विशेषत: महिला मजदूरों ) के हाथ भर आते हैं (मांसपेशियों का थकाव), दादा ने इसका उन्नत प्रारूप बनाया है जिसका वजन पारम्पारिक हंसिये की तुलना में आधा (लगभग 120 ग्रा.) गम्भीरता पूर्वक सोचा जाए तो यह ना कुछ सा लगने वाली बात एक बड़ी सोच का परिणाम है।'

यह और इन जैसे लोग किसी इतिहास में दर्ज नहीं किये जायेंगे। इनके बारे में कोई किताब या जीवनी नहीं लिखी जायेगी , इनकी अपनी कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं, इनकी कोई आर्थिक महत्वाकांक्षा नहीं; पर यह अपने समाज को, परिवेश को वह लौटा रहे हैं जिसकी पूर्ति किसी परिकल्पित राजनैतिक-आर्थिक सिद्धांत से संभव नहीं और अपने समुदाय में उत्सव मनाने की असली वजह इन्हीं जैसे लोग हैं।


शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

नित्य मिलन-विरह





" भंगुर है वह मिलन 
जिसे तुम  स्थायी मान बैठी हो
इसलिये नहीं कि मेरे प्रेम में 
कोई खोट है पर प्रयास है
तुमसे हर बीते दिन से 
अधिक प्रेम करने का 
इसके लिए जरूरी है कि
यह मिलन अस्थायी हो
मैं तुम्हें नित-नित खोना चाहता हूँ 
मैं तुम्हें नित-नित पाना चाहता हूँ "

© डॉ. अमित कुमार नेमा